मंगलवार, 16 अप्रैल 2013

शासन शायद ऐसे ही होता रहेगा

शासन के लिए दुनियां भर में अलग-अलग प्रणालियां प्रचलित रही है। एक वक्त था जब राजतंत्र का बोलबाला था। फिर बारी आई सैन्यतंत्र और प्रजातंत्र की। दुनियां में आज ज्यादातर प्रजातंत्र ही अस्तित्व में है। लेकिन इन सभी प्रणालियों में एक बात कॉमन रही है। सभी प्रणालियों में एक ऐसा वर्ग अस्तित्व में रहा है जिसके हाथों में शासन की शक्तियॉं केंद्रित रही है।
प्रजातंत्र में यह शक्ति नेताओं और अधिकारियों के हाथों में है। यही इस शक्ति का इस्तेमाल करते हैं। नेता राजनीतिक दलों के माध्यम से देश पर शासन करते हैं। इनके इस कार्य में अधिकारियों का एक विशाल तंत्र इनकी मदद करता है। ये पेशेवर लोग होते हैं। जो नीतियों के निर्माण से लेकर उसके क्रियान्वयन तक के कार्यों में लगे रहते हैं।
 भारतीय गणतंत्र के छह दशक से ज्यादा हो चुके है। इस गणतंत्र का इतिहास गवाह है कि नेताओं के इस शासन में नेताओं और अधिकारियों ने शक्ति का गलत इस्तेमाल ज्यादा किया है। कभी शासक ईमानदार रहा तो वो नौकरशाही की नकेल कसने में नाकामयाब हुआ, कभी अधिकारी वर्ग ही नेताओं पर हावी रहा।
कई अवसर ऐसे आए जब काबिल और ईमानदार लोगों ने भ्रष्ट तत्वों के सामने तटस्थ हो कर बडी गलतियां की जिसका खामियाजा मुल्क भुगत रहा है और आगे भी भुगतेगा। ऐसे मौके भी आए जब सरकार में सहयोगी दल के मंत्री मनमानी चलाते रहे, मुखिया चुप रहा। यही आज की राजनीति का सबसे बडा सच बन कर उभरा है।
केंद्र से लेकर राज्य तक सभी जगह ये चीजें देखने में आम हो गयी हैं। कोई राजनीतिक दल नहीं बचा है जिस पर आंखें बंद कर विश्वास व्यक्त किया जा सके। अपने को सही साबित करने के लिए नेताओं ने एक दूसरे पर आरोप-प्रत्यारोप का रास्ता ढूंढ निकाला ताकि अवाम के सामने अपने को पाक-साफ दिखा सके।
राजनीति का यह रूप आज पूरी तरह से हावी है। नेता एक दूसरे को गंदा कहते हैं लेकिन कभी खुद को गंभीरता से नहीं देखते। शासन करने और राजनीति में बने रहने का नैतिक आधार इस बात से तय करते है कि उनसे ज्यादा भ्रष्ट लोग शासन कर रहे है तो वे क्यों न करें?
नेता यह बात जानते हैं कि सत्ता की ताकत देर-सवेर उसके हाथ में आती ही है,बस राजनीति का यह सिलसिला चालू रखो। यह सच भी है कि सत्ता की ताकत घूम-फिर एक दूसरे के पास आती जाती रहती है। यह एक तरह का विशेषाधिकार हो गया है हमारे नेताओं का।
इसी ताकत के लोभ में आज हर तरह के लोग राजनीति का रूख कर रहे है। ऐसे लोग सेवा भाव से नहीं इसकी ताकत से प्रभावित हैं और इसका उपयोग वे अपने निजी हित और स्वार्थों की पूर्ति के लिए करना चाहता है।
चारित्रिक पतन,अधिकारों का खुल कर दुरूपयोग और लोकतंत्र के साथ समझौता ही हमारे नेताओं का असली चेहरा बन कर उभरा है। अपराध,घपला-घोटाला और नैतिक- चारित्रिक गिरावट की खबरें चाहे जहांं से भी आएं, अधिकतर मामलों में नेताओं की संलिप्तता सामने आ जाती है। जहॉं पर भी मूल्यों का अवमूल्यन दिखता है,उसमें किसी न किसी रूप से एक नेता का जुडाव खुल कर सामने आता है। अपने गांव-गली से लेकर शीर्ष पदस्थ राजनेताओं के चरित्र पर थोडी नजर रखिए। यह सच स्वीकार करना ज्यादा आसान हो जाएगा।
 ऐसा नहीं है कि सभी नेता गलत हैं लेकिन ज्यादातर लोग सवालों के घेरे में है। कॉमनवेल्थ घोटाला, २जी स्पेक्ट्रम आवंटन में अनियमितता और कोयला ब्लॉक आवंटन में गडबडी,आदर्श सोसायटी में घपला,कर्नाटक में अपने निजी संबंधियों का लाभ देने के लिए नियमों की अनदेखी सहित राजनीति के गलत इस्तेमाल की कहानियां रोज सामने आ रही हैं। ये कुछ ऐसे किस्से हैं जो राजनीति और उसके गलत इस्तेमाल की कहानी खुद ब खुद कहते हैं और राजनीतिज्ञों के चेहरे से मुखौटा नोच कर असली चेहरा सामने लाते हैं।
कुछ लोग कहते हैं कि कांग्रेस बुरी है। फिर प्रश्न उठता है कि कौन सी पार्टी है जो दूध की धुली है? किस दल के दामन पर गंभीर अनियमितता के दाग नहीं हैं।।
कर्नाटक में येदियुरप्पा सरकार के बचाव के लिए बीजेपी हर संभव प्रयास करती रही,क्या यह राजनीतिक सुचिता है? ताबूत का मामला हो या फिर सार्वजनिक उपक्रमों में विनिवेश का मामला, इसमें किस दल पर आरोप लगा है। यह बताने की जरूरत है? बीजेपी ने येदियुरप्पा को तब हटाया जब पानी सिर के ऊपर बहने लगा। ऐसा नहीं कि येदियुरप्पा के मामले सामने आने के बाद उसे तुरंत हटाया गया हो। जब चारों ओर से दवाब बनने लगा तो बीजेपी ने येदियुरप्पा को हटाया लेकिन उनकी ही चलती रही कर्नाटक में। सदानंद गौडा की सरकार को उनके ही दबाव में ही बिना गलती के सजा दे दी गयी। क्या यह दूध की धुली राजनीति है?
शासन में कांग्रेस है। आज शक्तियां कांग्रेस के सरकार के हाथों में हैं। इसके गलत इस्तेमाल के किस्से सामने आ रहे हैं। कांग्रेसियों,उनके रिश्तेदारों, दोस्तों और गठबंधन के सभी सहयोगियों  पर गंभीर आरोप हैं।।
 आज राजनीति विकृत हो गयी है। नेताओं का नैतिक बल चुक गया है। जो ईमानदार हैं, कुछ करना चाहते हैं, उनकी चलती ही नहीं है। व्यवहारिक राजनीतिज्ञ वही माना जाता है जो नीतियों, उसूलों और ईमानदारी का सिर्फ दिखावा करे, उसका पालन न करें। राजनीति में धनबल और बाहुबल सिर चढ कर बोल रहा है।
मीडिया का एक बडा वर्ग भी राजनीति के तू-तू मैं-मैं वाले आदर्श को आत्मसात कर चुका है। तटस्थ विश्लेषण, निष्पक्ष चर्चा बहुत ही कम दिखती है। दिन भर मीडिया में बहस होती रहती है लेकिन निष्कर्ष निकलता ही नहीं। मीडिया में एक्सपर्ट कम बुलाए जाते हैं, मिथ्या भाषणों करने वाले बडबोले नेताओं और एक दूसरे को कोसने में विश्वास रखने वाले प्रवक्ताओं को कार्यक्रमों में बुलाया जाता है जिससे कार्यक्रम उत्तेजक बने। मीडिया में यह परंपरा जड पकडती जा रही है। राजनीतिक सुधार पर जो बहस होनी चाहिए, उसकी जगह दल विशेष की बात पर बहस का आकर ठहर जाती है।
यह सही है कि कांग्रेस ने ज्यादा वक्त शासन किया है, इसलिए उसकी जवाबदेही ज्यादा है। घेराबंदी सबसे पहले कांग्रेस की और पूरी सख्ती से होनी चाहिए लेकिन मुल्क पर गैर कांग्रेसी सरकारें भी रही हैं। राज्यों में कई जगह तो लंबे समय से गैर कांग्रेसी सरकारों का अस्तित्व है और यह अच्छी बात है लेकिन गैर कांग्रेसी राज्यों में राम राज हो, ऐसा है क्या? तो हम बहस को राजनीतिक सुधार पर क्यों नही केंद्रित करना चाहते ?
 बात जब राजनीतिक सुधार पर केंद्रित होगी तो हर दल के नेता सवालों के घेरे मेंं आ जाएंगे लेकिन इस बात के लिए ईमानदारी से कोई दल तैयार नहीं है। एक दूसरे पर आरोप-प्रत्यारोप कर के सिर्फ जनता जनार्दन को ठगने मेंं जब ज्यादा फायदा है तो फिर आत्मिक सुधार का रास्ता क्यों अपनाएं हमारे ये नेता?
जब कांग्रेस की गलतियों से बीजेपी को सत्ता मिल सकती है तो क्या जरूरी है राजनीतिक सुधार की? अगले पांच साल बाद बीजेपी की गलतियों से कांग्रेस को फायदा मिल जाएगा। बिना सुधार के,बिना सुधरे सत्ता आती है तो नेकनीयती की जरूरत क्या है? शायद राजनीति इसी तरह से होती है! शासन का यही तरीका है! अब व क्त आ गया है कि इन मुद्दों पर हम लंबी और सार्थक बहस करें।
 Golden India Magazine
 सूरज रजक (युवराज)

2 टिप्‍पणियां:

  1. अच्छा लेख लिखा गया है। मै इससे प्रभावित हुआ।

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  2. कोई राजनीतिक दल नहीं बचा है जिस पर आंखें बंद कर विश्वास व्यक्त किया जा सके?

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